अर्जुन की सख्य भक्ति arjun Shri krishna

अर्जुन की सख्य भक्ति arjun Shri krishna

अर्जुन की सख्य भक्ति arjun Shri krishna

महाभारत के तो मुख्य नायक ही श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं। अर्जुनकी शूरता, धर्मनिष्ठा, उदारता, भगवद्भक्ति तथा उनपर भगवान् मधुसूदनकी कृपाका महाभारतमें विस्तारसे वर्णन है।


 दूसरे पुराणोंमें भी अर्जुनका चरित है। उन ग्रन्थोंको अवश्य पढ़ना चाहिये। यहाँ तो थोड़े-से चरित संकेतरूपसे दिये गये हैं। 

अर्जुन भगवान्के नित्य पार्षद हैं। 

नारायणके नित्य संगी नर हैं। धर्मराज युधिष्ठिर जब परम धाम गये, तब वहाँ अर्जुनको उन्होंने भगवान्के पार्षदोंमें देखा।

 दुर्योधनतकने कहा-'अर्जुन श्रीकृष्णकी आत्मा हैं और श्रीकृष्ण अर्जुनकी आत्मा हैं। श्रीकृष्णके बिना अर्जुन जीवित नहीं रहना चाहते और अर्जुनके लिये श्रीकृष्ण अपना दिव्यलोक भी त्याग सकते हैं। 


भगवान् स्वयं अर्जुनको अपना प्रिय सखा और परम इष्टतक कहते रहे हैं और उन्होंने अपना और अर्जुनका प्रेम बने रहने तथा बढ़नेके लिये अग्निसे वरदानतक चाहा था।'


सभी पाण्डव धर्मात्मा, उदार, विनयी, ब्राह्मणोंके भक्त तथा भगवान्को परम प्रिय थे; किंतु अर्जुन तो श्रीकृष्णचन्द्रसे अभिन्न, उन श्यामसुन्दरके समवयस्क सखा और उनके प्राण ही थे।


 श्रीकृष्णचन्द्र क्यों अर्जुनको इतना चाहते थे, क्यों उनके प्राण धनंजयमें ही बसते थे-इस प्रसंगमें एक कथा इस प्रकार है एक  बार कैलासके शिखरपर श्रीगौरीशंकर भगवद्भक्तोंके विषयमें कुछ वार्तालाप कर रहे थे। 


उसी प्रसंगमें जगज्जननी श्रीपार्वतीजीने आशुतोष श्रीभोलेबाबासे निवेदन किया-'भगवन् ! जिन भक्तोंकी आप सुनकर इतनी महिमा वर्णित करते हैं, उनमेंसे किसीके दर्शन करानेकी कृपा कीजिये।

 आपके श्रीमुखसे भक्तोंकी महिमा मेरे चित्तमें बड़ा आह्लाद हुआ है।'

प्राणप्रिया उमाके ये वचन सुनकर श्रीभोलेनाथ उन्हें साथ लेकर इन्द्रप्रस्थको चले और वहाँ कृष्णसखा अर्जुनके महलके द्वारपर जाकर द्वारपालसे पूछा-'कहो, इस समय अर्जुन कहाँ हैं ?' उसने कहा'इस समय महाराज शयनागारमें पौढ़े हुए हैं।


 यह सुनकर पार्वतीजीने उतावलीमें कहा, 'तो अब हमें उनके दर्शन कैसे हो सकेंगे?' प्रियाको अधीर देखकर श्रीमहादेवजीने कहा-'देवि! भक्तको उसके इष्टदेव भगवान्के द्वारा ही जगाना चाहिये, अतः मैं इसका प्रयत्न करता हूँ।


 तदनन्तर उन्होंने समाधिस्थ होकर प्रेमाकर्षणद्वारा आनन्दकन्द श्रीव्रजचन्द्रको बुलाया और कहा, 'भगवन् ! कृपया अपने भक्तको जगा दीजिये, देवी पार्वती उनका दर्शन करना चाहती हैं।'


 श्रीमहादेवजीके कहनेसे श्यामसुन्दर तुरंत ही मित्र उद्धव, देवी रुक्मिणी और सत्यभामासहित अर्जुनके शयनागारमें गये। भाई कृष्णको आया देखकर सुभद्रा हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुईं और उनकी जगह श्रीसत्यभामाजी विराजमान होकर पंखा डुलाने लगीं।


गरमी अधिक थी, इसलिये भगवान्का संकेत पाकर उद्धवजी भी पंखा हाँकने लगे। इतनेमें ही अकस्मात् सत्यभामा और उद्धव चकित-से होकर एक-दूसरेकी ओर ताकने लगे।


 भगवान्ने पूछा, तुमलोग किस विचारमें पड़े हो? उन्होंने कहा—'महाराज! आप अन्तर्यामी हैं, सब जानते हैं; हमसे क्या पूछते हैं ?' भगवान् श्रीकृष्ण बोले, 'बताओ तो सही, क्या बात है?' तब उद्धवने कहा कि 'अर्जुनके प्रत्येक रोमसे 'श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण' की आवाज आ रही है। 


रुक्मिणीजी पैर दबा रही थीं, वे बोलीं-'महाराज! पैरोंसे भी वही आवाज आती है !' भगवान्ने समीप जाकर सुना तो उन्हें भी स्पष्ट सुनायी दिया कि अर्जुनके शरीरके प्रत्येक रोमसे यही 'जय कृष्णकृष्ण, जय कृष्ण-कृष्ण' की ध्वनि निकल रही है।


 तब तो भगवान् उसे जगाना भूलकर स्वयं भी उसके प्रेम-पाशमें बँध गये और गद्गद होकर स्वयं उसके चरण दबाने लगे।


इधर महादेव और पार्वतीको प्रतीक्षा करते हुए जब बहुत देर हो गयी, तब उन्होंने ब्रह्माजीको बुलाकर अर्जुनको जगानेके लिये भेजा। 


किंतु अन्तःपुरमें पहुँचनेपर ब्रह्माजी भी अर्जुनके रोम-रोमसे 'कृष्ण-कृष्ण की ध्वनि सुनकर और स्वयं भगवान्को अपने भक्तके पाँव पलोटते देखकर अपने प्रेमावेशको न रोक सके एवं अपने चारों मुखोंसे वेद-स्तुति करने लगे। 


जब ब्रह्माजीकी प्रतीक्षामें भी श्रीमहादेव और पार्वतीको बहुत समय हो गया, तब उन्होंने देवर्षि नारदजीका आवाहन किया।

 अबकी बार वे अर्जुनको जगानेका बीड़ा उठाकर चले।

 किंतु शयनागारका अद्भुत दृश्य देख-सुनकर उनसे भी न रहा गया। वे भी अपनी वीणाकी खूटियाँ कसकर हरि-कीर्तनमें तल्लीन हो गये। 


जब उनके कीर्तनकी ध्वनि भगवान् शंकरके कानमें पड़ी तो उनसे और अधिक प्रतीक्षा न हो सकी; वे भी पार्वतीजीके साथ तुरंत ही अन्तःपुरमें पहुँच गये। वहाँ अर्जुनके रोम-रोमसे 'जय कृष्ण, जय कृष्ण' का मधुर नाद सुनकर उनसे भी न रहा गया। 


उन्होंने भी अपना त्रिभुवनमोहन ताण्डव-नृत्य आरम्भ कर दिया; साथ ही श्रीपार्वतीजी भी स्वर और तालके साथ सुमधुर वाणीसे हरिगुण गाने लगीं। 


इस प्रकार वह सम्पूर्ण समाज प्रेमोन्मत्त हो गया। भक्तराज अर्जुनके प्रेम-प्रवाहने सभीको सराबोर कर दिया। धन्य हैं अर्जुन और धन्य है उनकी सख्य भक्ति! 

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