Dhruva ki Kahani भक्त ध्रुव जी की कथा 1

Dhruva ki Kahani भक्त ध्रुव जी की कथा 1

Dhruva ki Kahani भक्त ध्रुव जी की कथा 1


श्री मैत्रेयजी विदुरजी से कहते हैं- शतरूपा एवं स्वायंभुव मनु के दो पुत्र हुये थे जिनका नाम प्रियव्रत एवं उत्तानपाद था।

उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थीं। पहली सुनीति- वह जिसकी नीति सुन्दर थी और दूसरी सुरुचि, जो अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने वाली थी। सुनीति अपने पति को नीति का बात बताती थी । सुरुचि केवल अपनी इच्छा की पूर्ति की बात करती थी। 

हमारे अन्दर भी दो पत्नियाँ हैं सुनीति एवं सुरुचि। सुनीति अच्छा आचरण करने की सीख देती हैं और सुरुचि इच्छाओं वासनाओं की पूर्ति के लिए उत्प्रेरित करती है। वह सुरुचि उत्तानपाद को प्रसन्न करने के लिए मीठी-मीठी बातें करती थी अतः उत्तानपाद सुरुचि में ही अनुरक्ति रखते थे। 

सुनीति नीति की बात करते हुए पति को गलत कार्यों में लगने से रोकती थीं। अतः इसके चलते उत्तानपाद उन्हें अवहेलित करते थे। सुनीति को एक पुत्र था जिनका नाम ध्रुव था। एक बार राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में लेकर बैठे थे। 

उस समय ध्रुव की उम्र 5 वर्षों की थी। 

ध्रुव का मन भी पिताजी की गोद में बैठने के लिए मचल गया । वह भी उत्तानापद की गोद में बैठने गये। सौतेली माँ सुरुचि ने ध्रुव को पिता की गोद में बैठने से रोक दिया। सुरुचि ने कहा कि तुम मेरे पुत्र नहीं हो। 

मेरे गर्भ से अगले जन्म में भगवान् की तपस्या कर जन्म लोगे तब अपने पिता उत्तानपाद की गोद में बैठने के अधिकारी होगे। अभी गोद में बैठने के योग्य नहीं हो। 

Dhruva ki Kahani भक्त ध्रुव जी की कथा 1

ध्रुव वहाँ से आहत मन चल दिये। अपनी माता सुनीति के पास आकर रोने लगे और विमाता द्वारा बोले गये कटु वचनों को सुनाया और पिता की गोद में बैठने से मना करने की बात बताई। 

सुनीति भी आहत मन रोते पुत्र को देखकर रोने लगी और अपनी सौतन सुरुचि द्वारा पीड़ित जीवन का स्मरण कर अपने दुःखों के अन्त का रास्ता नहीं देखकर दग्ध होने लगी। फिर भी नीति में निरत सुनीति अपने पुत्र से कहती हैं-

दीर्घं श्वसन्ति वृजनस्य पारमपश्यती बालकमाह बाला ।

मामंगलं तात परेषु मंस्था भुङ्क्त जनो यत्परदुःखदस्तत् ।।

श्रीमद्भा० 04/8/17

हे बेटा! तू दूसरों के लिए किसी प्रकार के अमंगल या अनिष्ट की कामना मत करो । जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, वह स्वयं कष्ट में पड़ता है, उसका फल भोगता है। अतः हे पुत्र ! हमेशा दूसरे के मंगल की ही कामना करनी चाहिए। 

सुनीति इतने उच्च स्वभाव की है कि सुरुचि के द्वारा ध्रुव के अपमान में ताने के रूप में कही गयी बात में भी ध्रुव को अच्छी बात का अनुसरण करने को कहती है कि-

आतिष्ठ तत्तात विमत्सरस्त्व मुक्तं समात्रापि यदव्यलीकम् ।

आराधयाघोक्षजपादपद्मम् यदीच्छसेऽध्यासनमुत्तमो यथा ।।

श्रीमद्भा0 4.8.19

हे बेटा ! सुरुचि ने तेरी सौतेली माँ होने पर भी बिल्कुल ठीक बात कही है। इसलिए यदि तुम भी राजकुमार उत्तम के समान पिता की गोद में राजसिंहासन पर बैठना चाहता है, तो द्वेषभाव छोड़कर उस सुरुचि के उपदेश का पालन करो और अधोक्षज भगवान् के चरण कमलों की उपासना एवं अराधना में लग जा क्योंकि हे वत्स! श्री प्रभु के बिना उपासना किये उच्च पद की प्राप्ति नहीं हो सकती है। 

इस प्रकार सुनीति ने बेटे को समझाया कि भगवान् तो सबके पिता हैं। 

उन्हीं की गोद में बैठने के लिए तपस्या करो और यत्न करो। इस प्रकार छोटी उम्र है लेकिन क्षत्रिय बालक ध्रुव भगवान् की आराधना करने उसी समय चल देते हैं और रास्ते में नारद जी मिल जाते हैं।

 नारदजी ने देखा कि 5 वर्षों का छोटा बालक निर्भीक ढंग से चल रहा है। यह निश्चित रूप से क्षत्रिय बालक है। यह सौतेली माता के कटु वचनों को सह नहीं सका। 

श्री नारदजी ने ध्रुव को रोककर कहा कि हे बेटा ध्रुव ! यह तप करने की उम्र नहीं है। बाल अवस्था में मान अपमान के भाव को नहीं ग्रहण करना चाहिए। 

अपमान को भूल जाना चाहिए । ध्रुव की बाल्य अवस्था देखते हुए रोका तो ध्रुव ने नारदजी से कहा कि घर लौटने की बात छोड़ दें। मुझे केवल भगवत् प्राप्ति का उपदेश दें।

Dhruva ki Kahani भक्त ध्रुव जी की कथा 1

देवर्षि नारद ने ध्रुव को उपदेश दिया-

तत्तात गच्छ भद्रं ते यमुनायास्तटं शुचि ।

पुण्यं मधुवनं यत्र सानिध्यं नित्यदा हरेः ।।

 बेटा तुम ओम नमो भगवते वासुदेवाय  द्वादशाक्षर मंत्र का जप करना , इस उपदेश को प्राप्त कर ध्रुव ने देवर्षि नारद के चरणों में प्रणाम किया उनकी परिक्रमा की और मधुबन की यात्रा की । ध्रुव वृन्दावन में यमुना तट पर भगवान् की प्राप्ति हेतु तपस्या करने लगे।


प्रथम मास में तीन-तीन दिन उपवास कर कैथ और बेर खाकर रहे। द्वितीय मास में छः - छः दिन उपवास रखकर बेलपत्र खाकर रहे। तीसरे महीने में केवल जल पीकर नौ-नौ दिन उपवास किया। चौथे महीने में बारह - बारह दिन पर वायु पीकर केवल वायु पर रहे । 

पाँचवें महीने में प्रणवायु को रोककर हृदय में भगवान् की धारणा की और एक पैर पर तपस्या करने लगे एवं छठे मास में इन्द्रिय सहित प्राण को रोककर प्रभु ध्यान में लीन हो गये। इधर जगत् में हाहाकार मच गया। देवतागण संकटग्रस्त होकर भगवान् के पास गये तथा ध्रुव का सारा वृतांत सुनाया। 

सारे जगत् का प्राण अवरुद्ध हो गया। 

भगवान् ने देवताओं से कहा कि आप सब डरें नहीं । ध्रुव प्राण को रोककर मुझमें लीन हो गया है। इसी से तुम्हारा प्राण रोध हुआ है। मैं अभी ध्रुव के पास जाकर उसे तपस्या से विरत करता हूँ। 

इसके पहले देवताओं ने माया से बाघ, सिंह भेजकर ध्रुव को भयभीत कर तपस्या से विरत करने का प्रयत्न किया था। लेकिन वे विफल हो गये थे। भगवान् दर्शन देने के लिए वृन्दावन में बालक तपस्वी ध्रुव के पास आ गये । ध्रुव तो भगवान् को हृदय में धारण कर उन्हीं में तल्लीन थे। 

भगवान् सामने हैं, लेकिन वे उन्हें अपने हृदय में देख रहे थे। उनके नेत्र बन्द थे । भगवान ध्रुव के हृदय से अपनी मूर्ति हटा लेते हैं तब छटपटाकर ध्रुव ने आँखें खोल दीं और सामने भगवान् को खड़ा देखा। वे भगवान् के चरणों में गिर पड़े। ध्रुव जी स्तुति करना चाहते हैं लेकिन वाणी रुक गयी और बोल नहीं पाते।

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