श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में bhagwat katha hindi me

 श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में bhagwat katha hindi me



यहां मनुष्य जीवन का लाभ है। अतः सांख्य (ज्ञान) के द्वारा या भक्ति के द्वारा या ध्यान के द्वारा या योग के द्वारा या उपासनादि के द्वारा हर परिस्थिति में अपने जीवन की भक्ति करते हुए प्रभु की कथा के श्रवण, कीर्तन, स्मरण करने में व्यतीत करना अतः म्रियमाण मनुष्यको भगवान् का ध्यान करते हुए पूजन भजन आदि करना चाहिए। अथवा फिर अष्टांग योग करना चाहिए क्योंकि अष्टांग योग में निरत होकर जो व्यक्ति प्राण का त्याग करता है उसकी सद्यः मुक्ति हो जाती है। 

वह अष्टांग-योग जैसे- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार्, धारणा, ध्यान, समाधि अष्टांग योग कहे जाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये यम कहे जाते हैं। अहिंसा यानी हिंसा नहीं करना, सत्य यानी सत्य बोलना, अस्तेय का अर्थ होता है दूसरे की वस्तु चुराकर नहीं लेना । अपरिग्रह का अर्थ होता है जो वस्तु या सम्पत्ति लेने योग्य नहीं है यानी धर्मादा आदि का है या अपनी नहीं है उसे नहीं लेना । ब्रह्मचर्य यानी ब्रह्मचर्य से रहना ही ब्रह्मचर्य है। धीरता, क्षमा, संतोष, अलोभ आदि नियम कहे जाते हैं। योग मार्ग में ८४ आसन हैं। 

इनमें प्रधान हैं सिद्धासन, पद्मासन, सुखासन यानी जिसमें आराम मिले ऐसे आसन में बैठकर ही ध्यान करना चाहिए। पालथी मारकर बैठना सुखासन है। अतः उपरोक्त आसनो में अन्य असन या सुखासन में बैठकर नासिका के अग्रभाग को देखते हुए ध्यान करे। 

प्राण वायु को आराम देना, विराम देना, प्राणायाम कहा जाता है। प्राणायाम में प्राण वायु को आराम देते हुए परमात्मा का ध्यान किया जाता है। प्राणायाम ही समाधि में जाने का मार्ग है। बारह प्राणायाम से एक प्रत्याहार और बारह प्रत्याहार से एक धारणा होती है एवम् बारह धरणा से ध्यान होता है और ध्यान से ही समाधि लगती है। 

भाव समाधि तो नाम जपते- जपते या प्रभु का स्मरण करते-करते ही लग जाती है। इसी धारणा, ध्यान एवं समाधि के बल पर नष्ट अपनी स्मृति को पुनः प्राप्त कर ब्रह्मा ने प्रलयकाल में पुनः विश्व की रचना की थी। इस संसार में ईश्वर के सिवा अन्य वस्तुओं का अस्तित्व आगमापायी है। आगमापायी का अर्थ है - आज तो है, आनेवाले समय में नहीं रहेगा।

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श्री शुकदेवजी आगे कहते हैं कि -हे परीक्षित् ! शरीर निर्वाह के लिए जितना भोग अपेक्षित है उतना ही भोग करना चाहिए। पूर्व जन्म के प्रारब्ध से कुछ भोग, ऐश्वर्य प्राप्त हो भी जाय तो उसमें आसक्त नहीं होना चाहिए एवम् उसमें चेष्टा नहीं करनी चाहिए या संलिप्त नहीं होना चाहिए। जैसे कहा भी गया है कि-


पृथ्वी पर सोने से काम चलता हे तो गद्देदार पलंग के लिए क्यों प्रयास करते हो या परेशान हो यानी जैसे पृथ्वी के रहते शय्या की, बाँह के रहते तकिया की, अंजलि के रहते भोज्य पात्रों की, वल्कलों के रहते वस्त्रों की क्या आवश्यकता है ? 

'चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षा, नैवाङ्घ्रिपाः परभृतः सरितोऽप्यशुष्यन् ।

रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति नोपसन्नान्, कस्माद् भजन्ति कवयो धनदुर्मदान्धान् ।।

श्रीमद्भा० २/२/५

क्या लंगोटी के लिए मार्ग में चिथड़े नहीं हैं ? खाने के लिए क्या वृक्ष फल नहीं देंगे ? पानी पीने के लिए क्या नदियाँ सूख गई हैं ? रहने के लिए क्या गुफाएँ बन्द हैं ? शरणागत भक्तों की क्या भगवान् रक्षा नहीं करते ? यानी ये सभी चीजें साधु पुरुष, विद्वान पुरुष के लिए उपलब्ध हैं। इसलिए धन के मद में अन्धे धनवानों के पास साधुओं को नहीं जाना चाहिए । दुःख की बात है कि विद्वान लोग भी ऐसे धन के मद से मदान्धों के पास चले जाते हैं। उन्हें नहीं जाना चाहिए। संसार की सभी वस्तुएँ नश्वर हैं केवल भगवान् ही अविनाशी हैं। 

जो सबके हृदय में विराजमान हैं। अतः साधक को मन और चित्त लगाकर भगवान् की धारणा एवम् ध्यान करते हुये यह भावना करे कि भगवान् श्रीमन्ननारायण की चार भुजायें हैं, जिनमें शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये रहते हैं। उनकी चितवन अपूर्व स्नेह भरी है। इसप्रकार चरण से लेकर मुख-मण्डल तक का ध्यान करते रहें । अन्त में केवल भगवान के मुखमंडल का ही ध्यान करें एवं अन्य किसी का चिन्तन नहीं करें। -

'सुस्मितं भावयेन्मुखम् ।

म्रियमाण पुरुष को इसी तरह भीतर एवं बाहर प्रभु के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। यदि म्रियमाण मनुष्य स्वयं शरीर त्याग करना चाहे तो पैर की दाहिनी एड़ी से गुदा मार्ग को दबाये तथा बायीं एड़ी से मूत्र मार्ग को दबाकर छः चक्रों का क्रम से भेदन कर प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में ले जायें। फिर ब्रह्मरन्ध्र को भी भेदन कर मुक्त हो जाय । यही सद्यः मुक्ति कहलाती है। कममुक्ति वह है कि साधक यदि विहार करने की इच्छा से अपने इन्द्रिय तथा प्राण को सूक्ष्म शरीर के साथ स्वर्ग में ले जाय, फिर वहाँ से दिव्य भोगों का उपभोग कर महर्लोक और ब्रह्मलोक का अतिक्रमण करते हुए सत्यलोक में चला जाय तो वहाँ पहुँचकर आयुपर्यन्त ब्रह्मा के साथ ही मुक्त हो जाय । 

वहाँ पहुँचने पर मनुष्यों की तीन प्रकार की गति होती है। ऐसे साधक अपने पुण्य के प्रभाव से कल्प के प्रारम्भ में कुछ अधिकारी बना दिये जाते हैं या जो साधक हिरण्यगर्भ की उपासना करते हैं वे ब्रह्मा के साथ मुक्त हो जाते हैं। जो भगवान् की उपासना करते हैं, वे ब्रह्माण्ड भेदकर विष्णुलोक चले जाते हैं। यही क्रममुक्ति कही जाती है। 

अर्थात् सद्यः मुक्ति का मतलब है कि जगत् के वैभवादि की कामना को त्याग कर ध्यान करते हुए प्रभु के धाम में सीधा पहुँचना एवं क्रममुक्ति का मतलब है कि साधक का योग के द्वारा अनेक लोकों में जाना, फिर प्रभु के धाम में जाना । जो मनुष्य इस भगवत् गति को प्राप्त कर लेता है, वह पुनः इस संसार में नहीं आता। इस संसार में आये मनुष्य के उद्धार के लिए भक्तियोग से बढ़कर कोई दूसरा सरल साधन नहीं हैं ब्रह्मा ने वेदों पर तीन बार विचार कर अन्तिम निर्णय किया -

रतिरात्मन् यतो भवेत्

यानी जिससे भगवान् श्रीकृष्ण में प्रेमलक्षणा भक्ति हो, वही म्रियमाण मनुष्य के लिए उत्तम साधन है। इसलिए मनुष्यों को सतत् भगवान् का ही स्मरण, चिन्तन, निदिध्यासन करना चाहिए। ऐसा करने से विषयों से दूषित अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और भगवान् के चरणों के निकट शीघ्र पहुँच बनती हैं फिर भगवान् का सामीप्य मिलता है। 

भक्तिमार्ग से अपने साथ और लोगों को भी प्रवाहित किया जाता है भक्तिमार्गी स्वयं तो मुक्त होता ही है, अन्य लोगों को भी मुक्त करा देता है। कुछ मन्द बुद्धिवालों के कल्याण के लिए अलग-अलग उपास्य देव भी कहे गये हैं। अतः कुछ व्यक्ति आसक्ति एवं भोग में लिप्त रहने के कारण जिन देवताओं की पूजा करते हैं वे देवता अपना भोग भी ले लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को प्रायः भगवान् की कृपा नहीं हो पाती है।

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