भागवत कथा का मूल मंत्र क्या है? bhagwat mahatmya

 भागवत कथा का मूल मंत्र क्या है? bhagwat mahatmya 

भागवत कथा का मूल मंत्र क्या है? bhagwat mahatmya

आत्मदेव जी ने संत जी महाराज से आशीर्वाद के रूप में एक फल लिया था जिससे उनको पुत्र प्राप्त हुआ और वह धुंधली ने अपने गाय को खिला दिया जिससे कि गाय को गोकर्ण नाम के पुत्र प्राप्त हुए और धुंधली के जो है धुंधकारी नाम का पुत्र हुआ जो कि उनका बहन का पुत्र था ।


वह बहन के पुत्र को अपना पुत्र बताते हुए स्वीकार किया तो अब वक्तव्य आगे जो होने जा रहा है उसमें हम देखेंगे कि किस तरीके से गोकर्ण जी का चरित्र रहा है और किस तरीके से धुंधली के पुत्र धुंधकारी का चरित्र रहा है ।

किसी भी बालक का जो चरित्र निर्माण होता है वह तीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है पहला प्रारब्ध दूसरा उसके गर्भ गर्भ धारण करते वक्त जो माता की मनो स्थिति होती है उसके ऊपर और तीसरा निर्भर करता है कि उस बालक के आसपास का वातावरण किस तरीके का ये तीनों चीजें जब अच्छी मिलती है तो बालक के चरित्र का निर्माण अच्छा होता है ।

इनमें से कुछ भी एक चीज बिगड़ जाती है तो कहीं ना कहीं बालक के चरित्र में जो है कुछ ना कुछ कमी रह जाती है देखने को मिलती है जैसे कि प्रारब्ध में प्रारब्ध में से तात्पर्य है कि पिछले जन्म में बालक किस तरीके की सोच वाला था किस तरीके की उसकी स्थिति रहती थी किस तरीके के वो कार्य करता था वो उन्हीं उन्हीं जन्म उसी कार्य के अकॉर्डिंग ही उसको अगला जन्म मिलता है। 

 भागवत कथा का मूल मंत्र क्या है? bhagwat mahatmya 

वो अगला जन्म ही डिसाइड करता है कि उस बालक का जन्म अगला जन्म जो होगा वो किस योनि में होगा किस कुल में होगा अगर मनुष्य योनि में है वो क्या कार्य अधूरा करके आया है कहां उसकी प्रवृत्ति लगेगी अगर अच्छा कार्य वो अधूरा छोड़ के गया है तो अगला जन्म में उसकी प्रवृत्ति अच्छे कार्य में ही लगेगी बुरा कार्य अगर वो पिछले जन्म में छोड़ के आया है तो उस की जो मनो स्थिति है अगले जन्म में बुरे कार्यों में ही लगेगी।

मां का गर्भ धारण करने वाली जो मां है स्त्री है जिस जो गर्भावस्था में जिस तरीके का सोच रखती है जिस तरीके के दृश्य देखती है जिस तरीके की बातें सुनती है समझती है उसी तरीके की स्थिति उसके बालक की बनती है ।

तो प्राय कहा भी जाता है कि जो गर्भावस्था में महिलाओं को हमेशा अच्छी बुक्स पढ़नी चाहिए जैसे कि आपके भागवत हुआ रामायण हुआ या आप जो है कुछ भी बढ़िया अपने देशभक्ति वाले जो करैक्टर है चरित्र है उन राजाओं की आप पढ़ सकते हैं बुक्स वगैरह जो अपने देश भक्त हुए हैं ।

भक्ति चाहे देश भक्ति हो या भगवान की भक्ति हो वो आपको सत्कर्म की ओर ही लेकर जाएगी तो इस तरीके से दिया जाता है।


अब यह जो गोकर्ण है यह संत के फल से प्राप्त हुआ बालक जो गाय के गर्भ से एक गौ कण मतलब कान उसके गौ के जैसे है और गौ कर्ण से एक और तात्पर्य है कि गौ से मतलब है सत और पवित्र यानी सत्संग की बातों को सुनने वाला शास्त्रों की बातों को समझने वाला उनके ज्ञान को पढ़ने वाला बालक और धुंधकारी जो है जो काम ना करने वाले हो वह सारे काम करने वाला धुंधकारी बालक।

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 यानी कि देखा जाए तो यह जो धुंधकारी बच्चा है यह क्या करता है कि वह सारे कार्य कर रहा है जो नहीं करने हैं जबरदस्ती बच्चों को जो निरपराध बच्चे हैं उनको कुए में ढकेल देना । इस तरीके का कार्य करना और किसी के घर में जाकर आग लगा देना जबरदस्ती परेशान करना । 

 इस तरीके का यह चरित्र रखने वाला है अब एक दिन क्या होता है उनके पिता समझाते हैं आत्मदेव जी अपने धुंधकारी पुत्र को कि बेटा इस तरीके से कार्य नहीं करते हैं तो धुंधकारी क्या करता है कि पिता के ऊपर हाथ छोड़ने के लिए दौड़ता है और बहुत क्रोधित होता है।

 तब वहां पर गोकर्ण जी जो है पिता को उपदेश देते हैं- पिताजी इस संसार में तो ना तो इंद्र को सुख है ना ही चक्रवर्ती राजा को सुख है यदि कोई सुखी है तो वह एकांत जीवी विरक्त महापुरुष ही सुखी है । तो इस तरीके से गोकर्ण जी अपने पिता आत्मदेव को वैराग्य के लिए प्रेरित करते हैं उपदेश देते हैं।

सब एक दूसरे को अपने से ऊपर वाले को सोचते हैं कि वो सुखी है वो सुखी है वो सुखी है लेकिन तुलसीदास जी गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि हरि के भजन के बिना हर जीव दुखी रहेगा । जो आपको मनुष्य योनि मिली है आप बहुत ही पुण्य करके आपको यह मनुष्य योनि प्राप्त हुई है तो आपको भगवान को नहीं विस्मरण करना चाहिए।

 हमेशा भगवान का स्मरण रखिए तो आपको हर चीज में सुख मिलेगा 


तो इस तरीके से आत्मदेव जी अपने पिता को उपदेश देते हैं यह तो हमारे भागवत के सिक्के का जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं ना तो ये तो हमारे भागवत में बताया जा रहा है लेकिन इस सिक्के का दूसरा पहलू एक और है जो हमें देखने को सीखने को और समझने को मिलता है। 

क्या आत्मदेव जी ही एक ऐसे पिता है जो धुंधकारी से परेशान है 


और गोकर्ण जी वहां पर उनको प्रेरणा दे रहे हैं कि आप वैराग्य ले लीजिए नहीं ऐसा नहीं है । पर अब आजकल देखने को मिलता है कि धुंधकारी जैसे बालक प्रत्येक घर में आपको मिल ही मिल जाएंगे। जरूर पिता अगर पुत्र नहीं होगा तो पोते के रूप में मिल जाएगा । पोता नहीं होगा तो पड़ोसी के रूप में मिल जाएगा ।

कहीं ना कहीं आपको धुंधकारी से आपसी वार्तालाप करने को मिल ही जाएगा तो यहां पर जो गोकर्ण है ना सिर्फ आत्मदेव पिता को उपदेश दे रहे हैं बल्कि हर उस पिता को उपदेश दिया जा रहा है जो कि अपने अपने जो उनके कर्तव्य है उनसे निवृत हो चुके हैं तो वो अब वैराग्य ले ले ।

वैराग्य धारण कर अब वैराग्य धारण करने का तात्पर्य सिर्फ ये नहीं होता है कि हम हिमालय पर चले गए हमने आश्रम चले गए वृंदावन चले गए और हम वैरागी हो गए वैराग्य से तात्पर्य है कि आपको जो है अपनी जो जिम्मेदारियां है उनसे आप निवृत हो गए आपने अपने बच्चों की शादी करा दी बहुत अच्छा है अब उनका वो परिवार वो संभाले । 

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अब इतने सिर प जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं है जैसा कि आजकल दादा दादी नाना नानी को भी देखने को मिलता है कि वो बहुत दूर तक की सोच लेते हैं कि हमारे बच्चे इस वजह से परेशान है हमारे बच्चे को हमें ये हेल्प करनी है हमें वो हेल्प करनी है तो फिर आप इस संसार रूपी मोह माया में हमेशा फसे रहेंगे।

 भागवत का कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे हमारा पहले जो है आश्रम पद्धति होती थी कि आयु मनुष्य की आयु के हिसाब से उसे चार आश्रम में विभक्त किया गया था कि वो जन्म से लेकर 25 वर्ष तक विद्यार्थी में रहेगा विद्यार्थी आश्रम में रहेगा जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम बोलते थे।

 फिर 25 वर्ष के बाद वो जो है गृहस्थ आश्रम में रहेगा वहां पर वह अर्थ भी कमाए अपने परिवार का लालन पालन भी करेगा अपने सृष्टि का भी आगे निर्माण करेगा ठीक है उसके बाद जो है वान प्रस्था आश्रम वान प्रस्था आश्रम में जो है आप जगह-जगह घूमकर वहां अपने तीर्थ स्थान देखिए वहां की जानकारी लीजिए ग्रंथ पढ़िए वान प्रस्त हो गया। 

उसके बाद मोक्ष प्राप्ति के लिए आपका जो है लास्ट वाला आश्रम हुआ करता था तो तो जो पहली व्यवस्था थी वो बहुत बैलेंस्ड थी और बहुत कुछ सोच समझकर मनुष्य की आयु 100 वर्ष है तो 25 2 वर्ष का उन्होंने विभाजन किया था ।

लेकिन आज क्या होता है देखने को मिलता है अगर मैं भी सोचूं ना तो मेरे हां मेरी बेटियां है और मेरी बेटियां है अब मैं इनको पढ़ाऊंगा दी करूंगी फिर इनसे जो प्राप्त होने वाला सुख है उसका भी भोग करूंगी जैसे कि इनके बच्चे हैं वो मेरे पास आएंगे मैं उनके प्रति और ज्यादा मोहो में पड़ूंगी तो उस जीवन को सिर्फ बर्बाद करने के अलावा हम कुछ नहीं कर रहे हैं ।

मनुष्य योनि में आने आने के बावजूद हम एक तरीके से जो है जानवरों की तरह जिंदगी बिता रहे हैं भोगी बनकर जो हमें सुख मिल रहा है सिर्फ उसका भोग करना ही हमारा मेन उद्देश्य रह गया है तो कहने का तात्पर्य यह है जो गोकर्ण जी है हर एक उस पिता और माता के लिए यह उपदेश दिया जा रहा है इसका एक और पहलू देखने को मिलता है। 

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