अत्रीश्वर की महिमा वर्णन atri muni ki mahima

अत्रीश्वर की महिमा वर्णन atri muni ki mahima 


सूतजी बोले- हे ऋषियो ! इस प्रकार तप करते-करते एक बार महर्षि अत्रिजी ने तप समाधि से जागकर पत्नी से कहा- हे प्रिये ! मुझे तो जोरों से प्यास लग रही है कहीं से जल लाओ । 
अत्रीश्वर की महिमा वर्णन atri muni ki mahima


इतना सुनते ही पति भक्ता अनुसुइया कमण्डलु लेकर जल लाने को इधर-उधर व्याकुल फिर रही थीं । तब तो स्वयं श्री गंगाजी अद्भुत शृंगार करके रूपवती होकर अनुसुइया के पास आकर मधुर वाणी से बोली- देवी, मैं आपसे बहुत ही प्रसन्न हूँ । 

कहो इस समय आप कहाँ जा रही हैं अनुसुइयाजी बोली- भगवती आप कौन हैं । 

कहाँ से आ रही हैं ? तब श्री गंगाजी बोली- पति परायणे ? मैं गंगा हूँ केवल आपके दर्शन करने को आई । तुम्हारे पतिव्रत धर्म शिव पूजन आदि व्रत से सन्तुष्ट होकर आपके पास ही रही हूँ । मैं तुम्हारा कुछ हित करना चाहती हूँ । आप इसीलिए कुछ मुझसे वर माँगिये । 

श्रीगङ्गाजी के इस प्रकार के कथन को सुनकर हाथ जोड़कर अनुसुइया ने प्रणाम कर नम्रता से कहामातेश्वरी यदि आप प्रसन्न हैं तो सबसे पहिले मेरे इस कमण्डलु को जल से भर दें । 

यह सुनकर श्री गङ्गाजी ने कहा- कल्याणी आप पृथ्वी में एक गड्ढा खोदिये । तब अनुसुइयाजी ने पृथ्वी में एक गड्ढा खोद दिया । श्रीगङ्गाजी उसी गड्ढे मे समा गई । 

श्री अनुसुइया जी ने विस्मित होकर अपना कमण्डल उस जल से भर लिया । फिर कहने लगीं- पतित पावनी गंगे यदि सचमुच तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे कहने के अनुसार तब तक इसी गड्ढे में आप इसी प्रकार विराजमान रहो जब तक कि मेरे पतिदेव यहाँ आकर आपका दर्शन न कर लें । 

इतना सुनकर श्रीगङ्गाजी वहां जल रूप होकर स्थिर हो गई । इतने में श्री अनुसुइयाजी शीतल जल लेकर पतिदेव के पास पहुँची । उन्हें जल का कमण्डलु दिया । 

ऋषि प्यासे तो थे ही उस जल द्वारा आचमन करके प्रेम पूर्वक जल पान किया । फिर कहने लगे- यह तो जल बहुत मधुर तथा शीतल है ।

इसका स्वाद तो पहिले जल से निराला है । यह कहकर अत्रिजी इधर-उधर देखने लगे उन्हें वर्षा न होने के कारण सभी वृक्ष फल-फूल हीन दिखाई दिये । 

यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही फिर पत्नी से बोले- प्रिये क्या अभी तक वर्षा हुई ही नहीं । यह सुनकर अनुसुइया ने कहा- पतिदेव आपकी शिव आराधना से सदाशिव के प्रताप तथा हमारी तपस्या से सन्तुष्ट होकर श्रीगङ्गाजी यहीं पधारी हैं और इसी आश्रम के पास ही विराजमान हैं । 

परम स्वादिष्ट शीतल एवं मधुर जल उन्हीं का है । 

सूतजी बोले- ऋषियो ? ऐसा कहकर अनुसुइयाजी अपने पति को साथ लेकर श्रीगङ्गाजी के समीप पहुंच गई और इशारा करके उस गड्ढे में महारानी गंगाजी अपनी तरंगों से लहराती हुई दिव्य दर्शन दे रही हैं । 

तब महर्षि ने धन्य-धन्य कहकर स्तुति करना आरम्भ किया । फिर दोनों पति पत्नियों ने मिलकर गंगा स्नान किया । फिर दैनिक सन्ध्या वन्दन आदि नित्य के कर्म भी किये । 

उसी समय श्रीगंगाजी की इच्छा भी पूर्ण हुई । तब अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने स्थान पर जाने की श्री गंगाजी ने दोनों से आज्ञा माँगी । इतना सुनते ही अनुसुइयाजी से नम्रता से कहा- पतित पावनी गंगाजी? 

यदि सचमुच मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरी इस अभिलाषा को पूर्ण करें । आप इसी तपोवन में विराजें और स्थिर होकर यहाँ से आपका प्रवाह चले । 

तब महर्षि अत्रि ने भी कहादेवि मैं भी यही प्रार्थना करता हूँ आप हमारी सहायक रूप होकर यहाँ विराजें हम कृतार्थ होते रहें ।

तब श्री गंगाजी ने अनुसुइया जी से कहा- यदि आप मुझे अपने आश्रम के समीप ही रखना चाहते हैं, तो मेरी भी एक इच्छा पूर्ण करो ? वह यह है कि आपने जो अपने पतिदेव के लिये शिवार्चन किया है । 

उसके एक वर्ष का फल मेरे लिये अर्पण कर दें तभी मैं आप लोगों के तथा ऋषि मुनियों के हित के लिये यहाँ निवास करूँगी । 

इतना सुनकर पति परायणा साध्वी अनुसुइया के सेवा धर्म के प्रताप से प्रसन्न होकर शीघ्र ही शिव उस पार्थिव लिंग से साक्षात् रूप में प्रकट हो गये और अतीव प्रसन्न होकर अनुसुइया से बोले- कल्याणी मैं तुम्हारी भक्ति से अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ वर माँग लो तब पति पत्नी दोनों ने भगवान् शङ्कर के के दर्शन किये और विधि पूर्वक पूजन करके स्तुति करते हुए नम्रता से बोले- स्वामिन् ! यदि आप प्रसन्न होकर वर देना चाहते हैं तो आपकी अतीव कृपा होगी आप जगदम्बा श्री पार्वतीजी के सहित इस तपोवन में विराजें फिर वर्षा द्वारा अन्न आदि यहाँ उत्पन्न हो चराचर जीवों का कल्याण हो । यह सब आपकी कृपा द्वारा हो । 

यह सुनकर भगवान शङ्कर ने "तथास्तु" कह दिया । 

फिर अत्रीश्वर रूप से उस तपोवन में विराजमान हुए और गंगाजी भी मन्दाकिनी नाम से विख्यात होकर उसी कुण्ड में सदा के लिए निवास कर गई । 

ऋषियों ! यह कुण्ड केवल एक हाथ जितना था। श्रीगंगाजी उसी कुण्ड में से अपनी माया द्वारा अब भी धारा रूप से प्रवाहित हो रही हैं । सब सुकाल हो गया । उस तपोपन से भागे हुए ऋषि-मुनि सभी लौट आये । ऋषि अत्रिजी का आश्रम हरा भरा हो गया।
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