Kardam Devhuti Charitra महर्षि कर्दम एवं देवहूति का दिव्य चरित्र
सौ वर्षों तक दोनों आनन्दपूर्वक विहार करते रहे। यह समय मुहूर्त के समान बीत गया। देवहूति भी भ्रमण एवं विहार में खो गयी थी। उन्हें भी समय का ज्ञान नहीं रहा।
कर्दमजी ने देवहूति का संकल्प जानकर नौ सुन्दर कन्याओं को उत्पन्न किया। कन्याओं की उत्पत्ति के बाद कर्दमजी को वन जाने की इच्छा हुई।
अब वे संन्यास लेना चाहते थे। देवहूति ने कहा कि आप संन्यास ले लेंगे तो इन कन्याओं का विवाह कौन करेगा ? इन कन्याओं का विवाह करके ही आपका वन जाना उचित है इसके अतिरिक्त देवहूति ने यह भी कहा कि शास्त्रों के वचनानुसार जब तक पुत्र उत्पन्न नहीं होता, पितृ ऋषि, देव इन तीनो ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता ।
हे भगवन् ! जबतक आप पुत्रदान नहीं करते. तबतक शास्त्र के अनुसार आप वन जाने के या संन्यास लेने के अधिकारी नहीं हैं। विवाह करके पुत्र उत्पन्न कर बिना उसे प्रौढ़ बनाये गृहस्थ धर्म को छोड़ना कायरता है।
पुत्र सयाना हो जाय, उसकी शादी कर दें, जीविका का प्रबंध कर दें तब पिता को वन-गमन करना चाहिए। कन्याओं का यथायोग्य विवाह कर दे, यह पिता का कर्तव्य है। उसके बाद मुनि होकर वन में रहने की इच्छा करनी चाहिए।
देवहूति ने कहा कि एक भी पुत्र हो जाने पर मुझे आपके वन जाने का शोक नहीं होगा। पुत्र में पिता की आत्मा बसती है।
मुझे एक ऐसा पुत्र दें जो ज्ञान देकर संसार से मेरा उद्धार करे।
देवहूति ने कहा कि आपके अलौकिक प्रभाव को न जानकर मैंने विषय के लिए आपका संग किया। फिर भी मेरे लिए कोई भय का कारण नहीं है, क्योंकि असत् पुरुषों का संग दुःख का कारण होता है और सत् पुरुषों का संग मोक्ष का कारण होता है।
'नेह यत्कर्म धर्माय न विरागाय कल्पते । न तीर्थपदसेवायै जीवन्नपि मृतो हि सः ।।
श्रीमद्भा० ३.२३.५६
जिस कर्म से न तो धर्म होता हो और न तो विषयों से वैराग्य होता हो तथा जिस कर्म से भगवान् की सेवा न हो सके, ऐसा कर्म करनेवाला जीवन मृतक कहा जाता है। देवहूति ने कहा कि आज वह भगवान् की माया से ठगी गयी। ऐसे महाज्ञानी पति मिले, फिर भी वह बन्धन से मुक्त न हो सकी। वह पश्चताप के साथ बोल पड़ी ।
'यत्वां विमुक्तिदं प्राप्य न मुमुक्षेय बन्धनात् ।'
इस तरह बालते हुए अश्रुपूर्ण नेत्रों से देवहूति कर्दमजी का मुख निहारते हुए मौन हो गयी तो श्री कर्दमजी कहते हैं कि-
मा खिदो राजपुत्रीत्थमात्मानं प्रत्यनिन्दिते । भगवांस्तेऽक्षरो गर्भमदूरात्सम्प्रपत्स्यते ।।
श्रीमद् भा० ३.२४.२
देवहूति के ऐसे वैराग्यपूर्ण वचनों को सुनकर कर्दमजी बोले- हे राजपुत्री ! खिन्न मत हो, तुम भाग्यहीन नहीं हो। तुम्हारे गर्भ में शीघ्र अविनाशी ब्रह्म आनेवाले हैं। तुम व्रत रखकर संयम नियम का पालन करो । पुत्र उत्पन्न होने के बाद ही मैं वन जाउँगा।
देवहूति के गर्भ से कपिलजी अवतरित हुए। आकाश में देवतागण वाद्य बजाने लगे, गन्धर्व गान करने लगे, अप्सरायें नृत्य करने लगीं, जल स्वच्छ हो गया। मनुष्य का मन प्रसन्न एवं विकार रहित हो गया। उसी समय मरीचि, ब्रह्मा तथा अन्य ऋषिगण वहाँ आ गये।
ब्रह्माजी ने कर्दम ऋषि की सराहना की। उन्होंने कहा कि तुम पुत्र पैदा करके पितृऋण से मुक्त हो गये। अब नौ कन्याओं को ऋषियों से विवाह कर सृष्टि में वृद्धि करो।
जो ब्रह्म में ही मिला हो या ब्रह्ममय हो या जो हमेशा ब्रह्म - रस का पान करता हो वह कपिल है। अतः ब्रह्मा जी ने उस बच्चे का नाम कपिल रखा।
कर्दम ने ब्रह्मा जी की आज्ञा से अपनी नौवों कन्याओं का क्रमशः मरीचि से कला नाम की कन्या का विवाह किया एवं अत्रि से अनसूया का, अंगिरा का श्रद्धा से, क्रतु से क्रिया का, भृगु से ख्याति का, वसिष्ठ से अरुँधती का, अथर्वा से शान्ति का पुलस्त्य से हविर्भू का पुलह से गति का विवाह कर दिया।
सभी मुनियों को प्रचुर दहेज देकर संतुष्ट किया। इसके बाद सभी मुनि अपनी-अपनी पत्नियों के साथ कर्दम ऋषि की आज्ञा लेकर अपने-अपने आश्रम को चले गये।
एक दिन कर्दम जी ने कपिल भगवान् के सामने जाकर प्रणाम किया क्योंकि जो ज्ञानी है, वह पूजनीय होता है।
यद्यपि कपिल कर्दम जी के पुत्र थे, लेकिन ज्ञान में श्रेष्ठ होने के कारण तथा भगवान् का अवतार होने के कारण कर्दमजी ने उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने कपिलजी से निवेदन किया कि मनुष्य अपनी वासना के चलते बन्धन में है। उसकी मुक्ति कैसे होगी ?
जिस देश में रहें, जिस वेष में रहें, ‘हरिशरणम्' गुनगुनाते रहें।
इससे सदा के लिए बन्धन से मुक्ति हो जायगी। ज्ञान की ऐसी बातें सुनकर कर्दमजी कपिल भगवान् की प्रदक्षिणा करके वन में चले गये। वन में भगवत् – भजन करते हुए उन्होंने शरीर त्याग दिया।