पुरंजन की कथा puranjan ki katha

पुरंजन की कथा puranjan ki katha

पुरंजन की कथा puranjan ki katha


राजा पुरंजन अपने सुख के लिए रमणीय स्थान की खोज में है। लेकिन वह अपने मित्र अविज्ञात (परमात्मा) से इस संबंध में कोई सलाह नहीं लेता। वह कभी एक जगह टिकता भी नहीं । आनन्द की खोज में राजा पुरंजन हिमालय के दक्षिणी प्रदेश में पहुँच गया। वहाँ उसने एक दिव्य नगर देखा । वह बेचारा '

आया था हरिभजन को ओटन लगे कपास' की स्थिति में आ गया।

राजा पुरंजन (आत्मा) अपने मित्र (अविज्ञात) के साथ इस जगत में (शरीर में ) आया था परंतु वह पुरंजन अपने मित्र को छोडकर अकेले सुख भोगने के लिए मन पसन्द नगर की खोज में हिमालय की तराई में बसे नौ द्वारों वाले दिव्य नगर में पहुँच गया। 

जैसे यह जीव कई योनियों में भ्रमण करते हुये अन्त में अपने शरीर रुपी भवन के इन्द्रिय रुपी नौ द्वार वाले भवन में परमात्मा रूपी मित्र को छोड़कर अकेले सुख भोगने के लिए मानव योनि रूपी सुन्दर स्थान ( हिमालय) की खोज करता है। 

वह राजा पुरंजन घुमते हुए हिमालय के दक्षिण प्रदेश में नौ द्वार वाले दिव्य नगर में पहुँच गया। यहाँ रमणीय भवन हैं। भवन में चारों तरफ परकोटे और खाईयाँ हैं। 

अर्थात वह मोह रूपी परकोटा और आसक्ति रूपी खाई है। राजा पुरंजन उस दिव्य नगर के भवन, बगीचे और सरोवरों को देखकर मग्न हो जाता है। वहाँ एक सुन्दर युवती आती है। 

युवती ने राजा से पूछा कि आप कौन हैं ? तब राजा ने प्रति प्रश्न किया कि तुम कौन हो, किसकी कन्या हो, किसके साथ रहती हो, लक्ष्मी हो या सरस्वती ? तुम्हारा सौन्दर्य मुझे आकर्षित कर रहा है। 

तुम मुझसे विवाह कर लो और हमलोग इस पुरी में निवास करें  इसके बाद पुरंजन तथा युवती एक दूसरे के हो गये और गृहस्थ आश्रम में रहकर आनन्द - विहार करने लगे। वे दोनों सरोवर में जलक्रीड़ा करते और आनन्द से रहते थे। 

राजा पुरंजन, पुरंजनी में पुरी तरह आसक्त हो गया था। 

क्वचिद् गायति गायन्त्यां रुदत्यां रुदती क्वचिद् ।

क्वचिद्धसन्त्यां हसति जल्पन्त्यामनु जल्पति ।।

वह पुरंजनी जब खाती-पीती तो वह पुरंजन खाता- पीता और सोती तो सोता था। इस तरह उसी में राजा पुरंजन का जीवन बीतने लगा। राजा पुरंजन अपनी पत्नी, पुत्र, पौत्रों के बारे में बार-बार सोचता है। उसी समय भय ने आकर पुरी के रक्षक पंचमुखी सर्प को घेर लिया। 

प्रायः मनुष्य नहीं सोचता कि भगवान् वास्तविक रक्षक हैं। जिसने इस जगत् में जन्म दिया है, वही रक्षक है। सर्प पुरी की रक्षा का कार्य छोड़कर भाग गया। 

पुरंजन भी मृत्यु को प्राप्त हो गया । इस तरह राजा पुरंजन अपने जीवन में भगवान् का भजन नहीं कर सका। पत्नी के बारे में ही सोचता रह गया। मरण के बाद उसे यमलोक में अनेक तरह से सताया एवं तड़पाया गया। सैकड़ों वर्षों तक पुरंजन नरक में पड़ा रहा। 

अगले जन्म में पुरंजन ने राजा विदर्भ के घर कन्या के रूप में जन्म धारण किया। वह मरने के समय अपनी स्त्री को ही स्मरण कर रहा था । 

शारीरिक भोग करने के बाद मरण के समय जैसा स्मरण करते हैं वैसी ही योनि में जन्म होता है। अतः राजा पुरंजन ने कन्या रूप में जन्म धारण किया। उसका नाम वैदर्भी रखा गया। उसका स्वयंवर हुआ। 

मलयध्वज ने अपने पुत्रों को राजपाट सौंप दिया और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए हिमालय में जाकर तपस्या करने लगे । वैदर्भी भी मलयध्वज के साथ हिमालय में गयी । मलयध्वज ने 100 वर्षों तक एक पैर पर खड़े होकर तपस्या की। 

और वह मलयध्वज योग-क्रिया से शरीर को समाप्त कर भगवान् के तत्व में मिल गये । वैदर्भी विलाप करने लगी। राजा पुरंजन रूपी वैदर्भी अपने पति के साथ चिता पर बैठकर देह त्यागने के लिए तैयार हो गयी। वह अपने पति की चिता पर बैठ गयी। 

उसी समय वैदर्भी रूपी राजा पुरंजन का मित्र । 

अविज्ञात आया। उसने कहा-अरे तू कौन है ? किसकी कन्या है ? यह कौन सो रहा है, जिसके लिए तू शोक कर रही है ? मैं तेरा मित्र हूँ। क्या तुम मुझे भी भूल गयी ? हम तुम दोनों किसी मानसरोवर में विचरते थे। तुम मुझे छोड़कर विषय-भोग के लिए किसी स्त्री के द्वारा निर्मित नगर में चले गये थे। 

वहाँ उस युवती से तुम्हारा सम्बन्ध हो गया था। उसी से तुम्हारी यह दशा हुई है। तुम न तो विदर्भ की कन्या हो और न यह तुम्हारा पति है। यह तो नव दरवाजेवाले पुरी में तुम्हें घूमने का फल मिला है। 

इसी से तुम्हें विपरीत ज्ञान हो गया है। मुझमें और तुझमें कोई अन्तर नहीं है। मैं तुम्हारा पुराना मित्र अविज्ञात हूँ। भले ही तुम भूल गये हो, मैं तुम्हें नहीं भूला हूँ। जब इस प्रकार वैदर्भी को उसके मित्र अविज्ञात ने समझाया तब उसे ज्ञान हुआ और उसकी पूर्व जन्म की ज्ञान जाग्रत हो गयी।

आगे श्री नारदजी ने प्राचीनबर्हि से कहा कि पशुबलि के कर्मकाण्ड को छोड़ भगवान् की शरण में जाओ “विष्णोर्पदम् निर्भयम्।” अतः जितना ही भोग करेंगे, आसक्ति बढ़ती जायगी। 

आग में तृण डालने से आग की ज्वाला बढ़ती जाती है।  इसप्रकार वह प्राचीनवर्हि भगवत - भक्ति करते हुए वे अपने जीवन को मंगलमय व्यतीत करते हुए परमात्मा को प्राप्त किये ।

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