devi charitra hindi देवी चरित्र कथा

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भगवती लक्ष्मी के शाप से विष्णु का मस्तक कट जाना, वेदों द्वारा स्तुति करने पर देवीजी का प्रसन्न होना, भगवान विष्णु के हयग्रीवावतार की कथा * भगवान विष्णु परम तेजस्वी एवं देवताओं के भी देवता हैं, इनकी लीला बड़ी ही विचित्र है।

एक समय की बात है कि वे सनातन देव विष्णु दस हजार वर्षों तक भीषण युद्ध करके अत्यन्त थक गये थे। तब वे अपने वैकुण्ठ में एक समतल तथा शुभ स्थान पर पद्मासन लगाकर पृथ्वी पर स्थित प्रत्यंचा चढ़े हुए धनुष पर कंठ प्रदेश (गर्दन) टिकाए हुए उस धनुष की नोंक पर भार देकर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु सो गये और थकावट के कारण दैवयोग से उन्हें गहरी नींद आ गयी।

कुछ समय बीतने के बाद ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र सहित सभी देवता यज्ञ करने को उद्यत हुए। वे सब देवकार्य की सिद्धि हेतु यज्ञों के अधिपति जनार्दन भगवान विष्णु के दर्शनार्थ बैकुण्ठ लोक गये। 

वहाँ उन्होंने सर्वव्यापी भगवान विष्णु को योग-निद्रा के वशीभूत होकर अचेत पड़ा हुआ देखा तो अत्यन्त चिंतित हुए। ऐसी स्थिति में इन्द्र ने देवताओं को सम्बोधित करके कहा- अब क्या करना चाहिए ? 

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इसके बाद ब्रह्माजी ने पृथ्वी पर स्थित धनुष के अग्रभाग को खा जाने के लिए दीमक का सृजन किया, उन्होंने यह सोचा कि दीमक के द्वारा अग्रभाग खा जाने पर धनुष नीचा हो जायेगा तब वे देवाधि देव विष्णु निद्रा मुक्त हो जायेंगे ऐसा होने पर नि:संदेह देवताओं का सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायेगा। अतः सनातन ब्रह्मा जी ने दीमक को इस कार्य के लिए आदेश दिया ।

- तब दीमक ने ब्रह्माजी से कहा- देवाधिदेव भगवान विष्णु की निद्रा भंग मैं क्यों करूँ? क्योंकि नींद में बाधा डालना, कथा में विघ्न पैदा करना, पति-पत्नी के बीच भेद उत्पन्न करना एवं माँ - पुत्र के बीच और बैर-भाव पैदा करने के लिए षडयंत्र करना, ब्रह्म-हत्या के समान कहा गया है, धनुष के अग्रभाग खाने से मेरा क्या लाभ ? जिसके लिए मैं ऐसा पाप करूँ? 

ब्रह्माजी बोले-सुनो! हम लोग यज्ञ में तुम्हारे भाग की व्यवस्था कर देंगे, होम कार्य में आहुति प्रदान करते समय जो हव्य आस-पास गिरेगा, उसी को अपना भाग समझना, और अब तुम शीघ्रतापूर्वक हमारा कार्य करो। ब्रह्मा के इस प्रकार कहने के अनन्तर दीमक ने धरातल पर स्थित धनुषाग्र को शीघ्र ही खा लिया जिससे धनुष की डोरी मुक्त हो गई। 

प्रत्यंचा के खुल जाने पर धनुष का वह ऊपरी कोना मुक्त हो गया, उससे भीषण ध्वनि पैदा हुई, ब्रह्माण्ड क्षुब्ध हो उठा, पृथ्वी में कम्पन होने लगा, आदि दारुण आपदा के सूचक उल्कापात आदि महान उपद्रव होने लगे, सभी देवतागण भयभीत हो गये ऐसा सोच ही रहे थे कि किरीट कुण्डल सहित भगवान विष्णु का सिर कटकर कहीं चला गया।

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कुछ समय पश्चात् उस घोर अंधकार के शांत हो जाने पर ब्रह्मा और शंकर ने भगवान विष्णु मस्तकविहीन विलक्षण शरीर देखा, सिर विहीन धड़ देखकर देवता अत्यंत विस्मित हुए, वे विलाप करने लगे हे नाथ! कैसी दैवी विचित्र घटना घट गयी, तब ब्रह्माजी ने कहा- सभी उन सनातनमयी विद्या स्वरूपिणी महामाया का चिंतन करो। 

वे प्रकृतिमयी भगवती निर्गुण स्वरूपिणी एवं सर्वोपरि हैं, अब वे ही हमारा कार्य सिद्ध करेंगी। सब प्राणी उन्हीं की संतान हैं, तब ब्रह्मा ने वेदों को आज्ञा दी, तदनन्तर वेद ब्रह्माजी का कथन सुनकर जगदम्बिका का स्तवन करने लगे।

वेद बोले–देवी ! आप महामाया है, जगत की सृष्टि करना आपका स्वभाव है, आप कल्याणमय विग्रह धारण करने वाली एवं प्राकृति गुणों से रहित है, अखिल जगत आपका शासन मानता है, तथा आप सबके मनोरथ पूर्ण किया करती हैं, कल्याणमयी जगदम्बे श्री विष्णु का मस्तक धड़ से अलग हो गया है, क्या आप इसे नहीं जानती। 

आप अखिल लोक नायक विष्णु के प्राण-दान करके शोकरूपी समुद्र से देवताओं का उद्धार करने की कृपा कीजिए। माता ! पहले तो हम नहीं जानते कि श्री हरि का मस्तक चला कहाँ गया है। देवी! आप जैसे अमृत पिलाकर देवताओं को जीवित करने में समर्थ हैं, वैसे ही अब जगन्नाथ को जीवित रखना आपका कर्तव्य है ।

इस प्रकार जब वेदों ने जगदम्बिका का स्तवन किया


तब वे मायामयी देवी अत्यंत प्रसन्न हो देवताओं को लक्ष्य करके आकाशवाणी से बोलीं- देवताओं! तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, तुम लोग हरि के छिन्न मस्तक होने का कारण सुनो।

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एक समय की बात है, भगवान विष्णु लक्ष्मी जी के साथ एकांत में विराजमान थे, लक्ष्मी के मनोहर मुख को देखकर उन्हें हँसी आ गयी । लक्ष्मी ने समझा हो कि विष्णु की दृष्टि में मेरा मुख कुरूप सिद्ध हो चुका है, अत: मुझे देखकर इन्हें हँसी आ गयी, फिर तो महालक्ष्मी को क्रोध आ गया। तब झट उनके मुख से निकल पड़ा, तुम्हारा यह मस्तक गिर जाय । इसी से इस समय इनका सिर क्षीर-सागर में लहरा रहा है ।

देवताओं इसमें कुछ कारण दूसरा भी है, वह यह है कि हयग्रीव नामक एक दैत्य हो चुका है। सरस्वती नदी के तट पर जाकर उसने महान तप किया। तब मैं ही तामसी शक्ति रूप में सजकर उसके पास गयी और जैसे रूप का वह ध्यान कर रहा था, ठीक उसी रूप में मैंने उसे दर्शन दिये। 

मैं सिंह पर बैठी थी। मैंने कहामहाभाग ! वर माँगों, सुव्रत तुम्हें जो इच्छा हो उसे देने को मैं तैयार हूँ। मेरी बात सुनकर दानव प्रेम विभोर हो उठा, उसने तुरंत मेरी परिक्रमा की और चरणों में अपना मस्तक झुकाया ।

हयग्रीव बोला—माता ! किसी भी प्रकार मुझे मृत्यु का मुख न देखना पड़े, देवता दानव कोई जीत न सके ऐसा वर देने की कृपा कीजिए, देवी ने कहा- जन्म हुए की मृत्यु और मरे हुए का जन्म होना बिल्कुल निश्चित है अत: मन में सोच विचार करके और अन्य जो इच्छा हो वह वर माँगों, हयग्रीव बोला- अच्छा तो हयग्रीव के हाथ ही मेरी मृत्यु हो, दूसरे मुझे न मार सके । देवी ने कहा- ऐसा ही होगा, घर जाओं और आनंदपूर्वक राज्य करो ।

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वही पापी इन दिनों मुनियों और वेदों को अनेक प्रकार से सता रहा है त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं है जो उस दुष्ट को मार सके । अत: घोड़े का सुन्दर सिर उतारकर श्री विष्णु के धड़ से जोड़ दिया जाय, यह कार्य ब्रह्माजी के हाथ से सम्पन्न होगा। अतः त्वष्टा इस अश्व का मनोहर सिर अलग करके इसे सिर विहीन धड़ पर संयोजित कर देंगे। 

इस प्रकार कहकर भगवती शांत हो गई। 

और इसके बाद देवगण परम संतुष्ट होकर देव शिल्पी विश्वकर्मा से कहने लगे-आप विष्णु के धड़ पर घोड़े का सिर जोड़कर देवताओं का कार्य कीजिए, वे भगवान 'हयग्रीव' ही दानव श्रेष्ठ दैत्य का वध करेंगे।

देवताओं का वचन सुनकर विश्वकर्मा ने अपने खड़ग से देवताओं के सामने ही घोड़े का सिर काटकर अविलम्ब विष्णु भगवान के शरीर में संयोजित कर दिया और इस प्रकार महामाया भगवती की कृपा से विष्णु 'हयग्रीव' हो गये । 

कुछ समय बाद उन भगवान हयग्रीव ने अहंकार के मह में चूर उस देव शत्रु दानव का युद्धभूमि में अपने तेज से वध कर दिया। इस संसार में जो प्राणी इस पवित्र कथा का श्रवण करते हैं, वे समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं, इसमें लेश मात्र संदेह नहीं है।

महामाया भगवती का चरित्र अति पावन है तथा पापों का नाश कर देता है । इस चरित्र का पाठ तथा श्रवण करने वाले प्राणियों को सभी प्रकार की सम्पदाएँ अनायास ही प्राप्त हो जाती है ।

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