madhu kaitabha story in hindi मधु-कैटभ की उत्पत्ति

madhu kaitabha story in hindi मधु-कैटभ की उत्पत्ति 

madhu kaitabha story in hindi मधु-कैटभ की उत्पत्ति

शेषशायी भगवान विष्णु के कर्ण-मल से मधु-कैटभ की उत्पत्ति तथा उन दोनों का ब्रह्मा जी से युद्ध के लिए तत्पर होना 

पूर्वकाल में प्रलयावस्था में जब तीनों लोक महाजल राशि में विलीन हो गये और देवाधि देव भगवान् विष्णु शेष- शय्या पर सो गये तब विष्णु के कानों की मैल से मधु-कैटभ नामक दो दानव उत्पन्न हुए, और वे महाबली दैत्य उस महासागर में बढ़ने लगे। 

वे दोनों दैत्य क्रीड़ा करते हुए उसी सागर में इधर-उधर भ्रमण करते रहे, उन विशाल शरीर वाले दोनों भाइयों ने विचार किया कि बिना किसी आधार के आधेय की सत्ता कदापि सम्भव नहीं, ये अति विस्तार वाला तथा सुखद यह जल किस आधार पर स्थित है? किसने इसका सृजन किया ? और इस जल में हम लोग कैसे स्थित हैं? हम दोनों कैसे पैदा हुए ? किसने हम दोनों को उत्पन्न किया? हमारे माता-पिता कौन हैं? इस

बात का ज्ञान भी हम लोगों को नहीं है।


इस प्रकार चिंतन करते हुए वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँचे तब कैटभ ने जल के भीतर अपने पास स्थित मधु से कहा- हे भाई मधु ! हम दोनों के इस जल में स्थित रहने का कारण कोई अचल महाबली शक्ति है, उसी से समुद्र का सम्पूर्ण जल व्याप्त है और उसी शक्ति के आधार पर यह जल टिका हुआ है। 

वे ही परात्परा देवी हम दोनों का भी स्थिति का कारण हैं। 


इस प्रकार विविध चिंतन करते हुए जब सचेत हुए तब उन्हें आकाश में अत्यन्त मनोहारी वाग्बीजस्वरूप (ऐं) वाणी सुनायी पड़ी।

उसे सुनकर उन दोनों ने सम्यक रूप से हृदयंगम कर लिया और वे उसका दृढ़ अभ्यास करने लगे, तदनन्तर उन्हें आकाश में कौंधती हुई सुन्दर विद्युत दिखलाई पड़ी तब सोचा कि नि:सन्देह यह मंत्र ही है और यह सगुण ध्यान ही आकाश में प्रत्यक्ष दृष्टिगत हुआ है। 

तदनन्तर वे दोनों दैत्य आहार का परित्याग कर इन्द्रियों को आत्मनियन्त्रित करके उसी विद्युज ज्योति में मन केन्द्रित किये हुए • समाधिस्थ भाव से जप-ध्यान करने में लीन हो गये, उन दोनों ने एक हजार वर्षों तक कठोर तपस्या की, जिससे वे परात्परा शक्ति उन दोनों पर अतिशय प्रसन्न हो गयीं ।

घोर तपस्या के लिये अपने निश्चय पर दृढ़ रहने वाले उन दोनों दानवों को अत्यन्त परिश्रान्त देखकर उन पर कृपा के निमित्त यह आकाशवाणी हुई- हे दैत्यो ! तुम दोनों की कठोर तपश्चर्या से मैं परम प्रसन्न हूँ, अतएव तुम दोनों अपना मनोवांछित वरदान माँगो, मैं अवश्य दूँगी। 

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उन दानवों ने कहा- हे देवि ! हमारी मृत्यु हमारे इच्छानुसार हो, हे सुव्रते! हमें आप यही वरदान दीजिये। वाणी ने कहा-हे दैत्यो! मेरी कृपा से अब तुम दोनों अपनी इच्छा से ही मृत्यु को प्राप्त होओगे। दानव व देवता कोई भी तुम दोनों भाइयों को पराजित नहीं कर सकेंगे ।

भगवती से ऐसा वरदान प्राप्त कर वे दोनों दैत्य मदोन्मत होकर उस महासागर में जलचर जीवों के साथ क्रीड़ा तत्पर हो गये, कुछ समय व्यतीत होने पर उन दानवों ने संयोगवश जगत्स्वष्टा ब्रह्माजी को कमल के आसन पर बैठे हुए देखा। 

उन्हें देखकर युद्ध की लालसा से वे दोनों महाबली दैत्य प्रसन्न हो ब्रह्माजी, से बोले - हे सुव्रत ! आप हम लोगों के साथ युद्ध कीजिये, अन्यथा पद्मासन छोड़कर आप अविलम्ब जहाँ जाना चाहें वहाँ चले जाइये, यदि आप दुर्बल हैं तो इस शुभ आसन पर बैठने का आपका अधिकार कहाँ ? कोई वीर ही इस अवस्था का उपभोग कर सकता है। आप कायर हैं अतः अति शीघ्र इस आसन को छोड़ दीजिये ।

उन दोनों दैत्यों की यह बात सुनकर प्रजापति ब्रह्मा चिन्ता में पड़ गये। तब उन दोनों बलशाली वीरों को देखकर ब्रह्माजी चिन्ताकुल हो उठे और मन ही मन सोचने लगे कि मुझ जैसा तपस्वी इनका क्या कर सकता है ?

ब्रह्माजी का भगवान विष्णु तथा भगवती योग निद्रा की स्तुति करना


उन दोनों दानव वीरों को देखकर ब्रह्माजी साम, दान, भेद आदि नीतियों के माध्यम से युद्ध की समाप्ति के उपायों को सोचने लगे, इनके वास्तविक बल का मुझे कोई ज्ञान नहीं है, नीति के अनुसार जिसके बल की जानकारी न हो उसके साथ युद्ध करना कदापि उचित नहीं होता। 

अतः इस समय उचित यही है कि मैं शेषनाग पर सोये हुए चतुर्भुज एवं पराक्रमी भगवान विष्णु को जगाऊँ। वे मेरी विपत्ति अवश्य ही दूर करेंगे, मन में ऐसा सोचकर कमलनाल का आश्रम लेकर पद्मयोनि ब्रह्माजी मन ही मन दुःख नाशक विष्णु के शरणागत हो गये और उनको जगाने के लिये उनकी स्तुति करने लगे—

हे सृष्टि पालन संहार के कारक ! ये दोनों मदोन्मत्त दानव मेरा बध करना चाहते हैं। हे सर्वाधार! मैं इस समय संकटग्रस्त हूँ, अत्यधिक दुःख से पीड़ित हूँ और आपके शरणागत हूँ, ऐसी स्थिति में यदि आप मेरी उपेक्षा करेंगे तो आपका जगत्पालन का नियम निरर्थक हो जायेगा ।

- इस प्रकार स्तुति करने पर भी जब योग-निद्रा में लीन भगवान विष्णु नहीं जगे, तब ब्रह्मा ने विचार किया कि विष्णु भगवान अवश्य ही शक्ति के अधीन होकर योगनिद्रा के वश में हो गये हैं अतः एकाग्रचित्त हो उन भगवती योग निद्रा की स्तुति करने लगे- क्योंकि निद्रा इनके अधीन नहीं है, निद्रा के द्वारा ही ये वशीभूत कर लिये गये हैं, अत: योग निद्रा ही लक्ष्मीपति विष्णु की स्वामिनी हो गयी हैं। 

मैं (ब्रह्मा) विष्णु, शंकर, सावित्री, लक्ष्मी एवं पार्वती - हम सभी उन्हीं के अधीन हैं इसमें कुछ भी संशय नहीं है। अतः भगवान विष्णु के अंगों में व्याप्त उन योगनिद्रा की स्तुति करने लगे-

madhu kaitabha story in hindi मधु-कैटभ की उत्पत्ति 

देखित्वमस्य जगतः किलकारणं हि ज्ञातं मया सकलवेद वचो भिरम्ब । 
यद्विष्णुरप्यखिल लोक विवेककर्त्ता निद्रावशं च गमितः पुरुषोत्तमोऽद्य ॥ 27 ॥ 
नाटयं तनोषि सगुणा विधि प्रकारं वो वेत्ति कोऽपि तव कृत्य विधान योगम् । 
ध्यायंति यां मुनिगणा नियतं त्रिकालं सध्येति नाम परिकल्प्यगुणाान्भवानि ॥30॥ 

( भागवतद्वेवी पुराण स्कंध 1 अध्याय 7 श्लोक 27 से 47 तक स्तुति की गई है।) 


हे देवी इस जगत का कारण आप ही हैं वेद वाक्यों से मुझे ऐसा ज्ञात हुआ है। हे अम्ब आप ही की शक्ति से सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान देने वाले भगवान विष्णु भी इस समय योगनिद्रा के वश में हो गये हैं ॥27॥ 

आपकी लीलाओं को कौन जान सकता है। आपकी इस लीला से मैं तो मूढ़ हो गया हूँ और ये विष्णु परवश होकर सो रहे हैं, हे भगवती ! ऐसा कौन विज्ञ है जो ऐसी आप निर्गुण का रहस्य जान सके ॥28 ॥ 

आप सगुण रूप धारण कर नानाविधि लीलाएँ करती रहती हैं आपका सम्यक ज्ञान करने में भक्त कौन समर्थ है ? हे भवानी मुनिगण 'सन्ध्या' नाम से आपके गुणों को परिकल्पित करके तीनों समय प्रातः मध्यान्ह सायं निश्चित रूप से आपका ही ध्यान करते हैं ॥30॥ 

इस प्रकार ब्रह्माजी ने श्लोक 47 तक विविध प्रकार की स्तुति की । 

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